Friday, May 24, 2013

ना जाने वो दिन कहा खो गयी

जब मैं छोटा था, शायद दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी...
मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक का वो रास्ता,
क्या क्या नहीं था मेरे स्कूल के बगल मे वहां , चाट के ठेले, जलेबी की दुकान, और खाछा के वो बर्फ के गोले, गुड़-गट्टा... सब कुछ, अब वहां "मोबाइल शॉप", "विडियोपार्लर" हैं, फिर भी सब सूना है l

शायद अब दुनिया सिमट रही है......

जब मैं छोटा था, शायद शामे बहुत लम्बी हुआ करती थी.... मैं हाथ में क्रिकेट का बल्ला पकडे, घंटो क्रिकेट खेला करता था !, वो लम्बी "साइकिल रेस", वो बचपन के खेल, वो हर शाम थक के चूर हो जाना, अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है...और सीधे रात हो जाती है l
शायद वक्त सिमट रहा है...

जब मैं छोटा था, शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी, दिन भर वो हुज़ोम बनाकर खेलना, वो दोस्तों के घर का खाना, वो साथ रोना, अब भी मेरे कई दोस्त हैं, पर दोस्ती जाने कहाँ है, जब
भी "फेसबूक" पे मिलते हैं "हाई" करते हैं, और अपने अपने रास्ते चल देते हैं l

शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं......

जब मैं छोटा था, तब खेल भी अजीब हुआ करते थे, छुपन- छुपाई, पिठिया फोरान, लाली ,चोरवा का आ ती पा ती, दूध पानी !

और अगर भाग्य से रात बिजली गुल...गांव के दोस्तो के साथ चोर सिपाही खेलना...
बुधवार - शुक्रवार का चित्र-हार...
स्कूल में फिफ्टी - फिफ्टी...
और रविवार को... सारा दिन क्रिकेट...
अब इन्टरनेट - ऑफिस से फुर्सत ही नहीं मिलती...

मिट्टी में खेलना भी भाग्य की बात है...
"जिसने कबड्डी नहीं खेली...वो जन्मा ही नही"...

आजकल लोगो की ओर देखता हूँ... सब फेसबुक खा गया.....

ना जाने वो दिन कहा खो गयी (विकास सिंह ).....................................:)