Wednesday, September 5, 2012

बनारस के सिगरा से नादेसर के टकसाल तक गधर का सफर !

भोर होने में कुछ घंटे बाक़ी रहे होंगे। दरवाज़े के सांकल को चुपचाप लगाकर निकल गया था। नादेसर की तरफ पैदल ही। फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का जुनून मल्टीप्लेक्स के आने के पहले सिनेमा संस्कृति का हिस्सा रहा है। टिकट खिड़की पर कतार में खड़ी भीड़ के कंधे के ऊपर से चलते हुए काउंटर तक पहुंच जाने वाले भले ही लफंगे कहे जाएं मगर उनका यह करतब मुझे सचिन तेंदुलकर के छक्के जैसे अचंभित कर देता था। पर्दे तक पहुंचने के पहले ऐसे हीरो से मुलाकात न हो तो सिनेमा देखने का मज़ा नहीं मिलता। तय हुआ कि पहले दिन और पहले ही शो में देखेंगे वर्ना गधर नहीं देखेंगे। पैसा दोस्तों का था और पसीना मेरा बहने वाला था। जल्दी पहुंचने से काउंटर के करीब तो आ गया मगर काउंटर के उस्तादों के आते ही मुझे धकेल कर कोई अस्सी नब्बे लोगों के बाद पहुंचा दिया गया। लाइन लहरों की तरह डोल रही थी। टूट रही थी। बन रही थी। लाइन बहुत दूर आ गई थी। लोग धक्का देते और कुछ लोग निकल जाते। नए लोग जुड़ जाते। यह क्रम चल रहा था। तभी पुलिस की पार्टी आई और लाठी भांजने लगी। तीन चार लाठी तबीयत से जब पैरों और चूतड़ पर तर हुई तो दिमाग गनगना गया। तब तो गोलियां खाते हुए गधर बोलते हुए प्रोमो भी नसीब नहीं था वर्ना वही याद कर सनी मुद्रा में खुद के इस त्याग को महिमामंडित करते हुए लाइन में बने रहते।

खैर चप्पल पांव का साथ छोड़ गए। हम नीचे से नंगे हो चुके थे। टिकट लेने के बाद होश ठीक से उड़ा कि इस हालत में घर गया तो वहां भी लाठी तय थी। किसी ने चप्पल का इंतज़ाम किया और पहले शो की तैयारी से हम फिर सिनेमा हाल के करीब पहुंच गए। टकसाल में लगी थी गधर।

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